Saturday, December 13, 2008

नवरात्रि



नवरात्रि पूरे भारत मे बड़े हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है, यह नौ दिनो तक चलता है। इन नौ दिनो मे हम तीन देवियों पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों की पूजा करते है। पहले तीन दिन पार्वती के तीन स्वरुपों(कुमार, पार्वती और काली), अगले तीन दिन लक्ष्मी माता के स्वरुपों और आखिरी के तीन दिन सरस्वती माता के स्वरुपों की पूजा करते है। ये तीनो देवियां शक्ति, सम्पदा और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है। आइये जाने इन नौ रुपों के बारे कुछ विस्तार से: (साभार साधना पथ पत्रिका)

प्रथम दुर्गा श्री शैलपुत्री
आदिशक्ति श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनके पूजन से मूलाधर चक्र जाग्रत होता है, जिससे साधक को मूलाधार चक्र जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।

द्वितीय दुर्गा श्री ब्रह्मचारिणी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोप तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इनकी उपासना से मनुष्य के तप, त्याग, वैराग्य सदाचार, संयम की वृद्धि होती है तथा मन कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता।

तृतीय दुर्गा श्री चंद्रघंटा
आदिशक्ति श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।

चतुर्थ दुर्गा श्री कूष्मांडा
आदिशक्ति श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा के पूजन से अनाहत चक्र जाग्रति की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है।

पंचम दुर्गा श्री स्कंदमाता
आदिशक्ति श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा मृत्युलोक में ही साधक को परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार स्वंयमेव सुलभ हो जाता है।

षष्ठम दुर्गा श्री कात्यायनी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्री कात्यायनी की उपासना से आज्ञा चक्र जाग्रति की सिद्धियां साधक को स्वयंमेव प्राप्त हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौलिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है तथा उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं।

सप्तम दुर्गा श्री कालरात्रि
आदिशक्ति श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री कालरात्रि की साधना से साधक को भानुचक्र जाग्रति की सिद्धियां स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैं।

अष्टम दुर्गा श्री महागौरी
आदिशक्ति श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन और अर्चन किया जाता है। इन दिन साधक को अपना चित्त सोमचक्र (उर्ध्व ललाट) में स्थिर करके साधना करनी चाहिए। श्री महागौरी की आराधना से सोम चक्र जाग्रति की सिद्धियों की प्राप्ति होती है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।

नवम् दुर्गा श्री सिद्धिदात्री
आदिशक्ति श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम् दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त निर्वाण चक्र (मध्य कपाल) में स्थिर कर अपनी साधना करनी चाहिए। श्री सिद्धिदात्री की साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता।

लेकिन आजकल नवरात्रि का आयोजन इतना व्यवसायिक हो गया है कि देख कर दिल दु:खी हो जाता है। नवरात्रि पर गरबा और डान्डिया के नाम पर अंग प्रदर्शन,दिखावा और फूहड़्ता से क्या आपको बुरा नही लगता। तो फिर लिख डालिये अपनी प्रतिक्रिया, जल्द से जल्द, इसी पोस्ट के कमेन्ट में।

गुरु गोरखनाथ का सरभंगा (जञ्जीरा) मन्त्र

“ॐ गुरुजी में सरभंगी सबका संगी, दूध-मास का इक-रणगी, अमर में एक तमर दरसे, तमर में एक झाँई, झाँई में परछाई दरसे, वहाँ दरसे मेरा साँई। मूल चक्र सर-भंग आसन, कुण सर-भंग से न्यारा है, वाँहि मेरा श्याम विराजे। ब्रह्म तन्त से न्यारा है, औघड़ का चेला-फिरुँ अकेला, कभी न शीश नावाऊँगा, पुत्र-पूर परत्रन्तर पूरुँ, ना कोई भ्रान्त ल्लावूँगा, अजर-बजर का गोला गेरूँ परवत पहाड़ उठाऊँगा, नाभी डंका करो सनेवा, राखो पूर्ण बरसता मेवा, जोगी जुग से न्यारा है, जुग से कुदरत है न्यारी, सिद्धाँ की मुँछयाँ पकड़ो, गाड़ देओ धरणी माँही, बावन भैरुँ, चौंसठ जोगन, उलटा चक्र चलावे वाणी, पेडू में अटके नाड़ा, ना कोई माँगे हजरत भाड़ा, मैं भटियारी आग लगा दियूँ, चोरी चकारी बीज मारी, सात राँड दासी म्हारी, वाना-धारी कर उपकारी, कर उपकार चल्यावूँगा, सीवो दावो ताप तिजारी, तोडूँ तीजी ताली, खट-चक्र का जड़ दूँ ताला, कदेई ना निकले गोरख बाला, डाकिनी शाकिनी, भूताँ जा का करस्यूँ जूता, राजा पकडूँ, हाकिम का मुँह कर दूँ काला, नौ गज पाछे ठेलूँगा, कुँएं पर चादर घालूँ गहरा, मण्ड मसाणा, धुनी धुकाऊँ नगर बुलाऊँ डेरा। यह सरभंग का देह, आप ही कर्ता, आपकी देह, सरभंग का जाप सम्पूर्ण सही, सन्त की गद्दी बैठ के गुरु गोरखनाथ जी कही।”
विधिः- किसी एकान्त स्थान में धूनी जलाकर उसमें एक चिमटा गाड़ दें। उस धूनी में एक रोटी पकाकर पहले उसे चिमटे पर रखें। इसके बाद किसी काले कुत्ते को खिला दें। धूनी के पास ही पूर्व तरफ मुख करके आसन बिछाकर बैठ जाएँ तथा २१ बार उक्त मन्त्र का जप करें।
उक्त क्रिया २१ दिन तक करने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है। सिद्ध होने पर ३ काली मिर्चों पर मन्त्र को सात बार पढ़कर किसी ज्वर-ग्रस्त रोगी को दिया जाए, तो आरोग्य-लाभ होता है। भूत-प्रेत, डाकिनी, शाकिनी, नजर झपाटा होने पर सात बार मन्त्र से झाड़ने पर लाभ मिलता है। कचहरी में जाना हो, तो मन्त्र का ३ बार जप करके जाएँ। इससे वहाँ का कार्य सिद्ध होगा

दैविक कार्य और कलश-स्थापना

कलश स्थापना
किसी भी धार्मिक समय में और योजना आदि में कलश स्थापना का बहुत महत्व है,पृथ्वी को कलश रूप में स्थापित किया जाता है,फ़िर कलश में सम्बन्धित देवी देवता का आवाहन कर विराजित किया जाता है,चूंकि पृथ्वी एक कलश की भांति है,और जल को संभाल कर लगातार गोल घूम रही है,जल का एक एक बूंद कितने ही अणुओं की भण्डारिणी है,कलश स्थापना का वैदिक महत्व समझने के बाद किसी भी पूजा पाठ या श्रीदुर्गा स्थापना आदि में कलश से सम्बन्धित भ्रान्तियां अपने आप समाप्त हो जायेंगी।

कलश का रूप
एक मिट्टी का कलश जो कि काला न हो,कभी कभी अधिक आग से कलश का रंग कहीं कहीं काला हो जाता है,उसे नही लेना चाहिये पीले कलर का कलश लेकर उसे पवित्र जल से साफ़ कर लेना है,और कलश के गले में तीन धागा वाली मोटी मोली को उसी प्रकार से बांधना है जिस प्रकार से गले में धागा आदि बांधते है,फ़िर कलश के चारों तरफ़ चावल का आटा पीसकर चार स्वास्तिक के निशान बना लेने है,और प्रत्येक स्वास्तिक के अन्दर चार चार टीका लगा देने है,जहां पर कलश को स्थापित किया जाना है,उस स्थान को साफ़ करने के बाद कुमकुम या रोली से अष्टदल कमल बना लेना है उसके बाद भूमि का स्पर्श करने के बाद इस मंत्र को पढना है-

ऊँ भूरशि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री, पृथ्वीं यच्छ पृथ्वीं दृ ँ ह पृथ्वीं मा हिं सी:।

इस मन्त्र को पढकर पूजित भूमि पर सप्तधान्य अथवा गेंहूँ या चावल या जौ एक अंजुलि भर कर रख दें।
धान्य को रखकर इस मंत्र को पढें-
ऊँ धान्यमसि धिनुहि देवान प्राणाय त्वो दानाय त्वा व्यानाय त्वा,दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रति गृभ्णात्वच्छिद्रेण पणिना चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि।

इस मंत्र को पढने के बाद कलश को धान्य के ऊपर स्थापित कर दें।
इसके बाद इस मंत्र को पढें-
ऊँ आ जिघ्र कलशं मह्या त्वा विशन्त्वन्दव: पुनुरूर्जा नि वर्तस्व सा न: सहस्त्रं धुक्ष्वोरूधारा पयस्वती पुनर्मा विशाद्रयि:।

इसके बाद कलश के अन्दर जल भरते समय इस मन्त्र को पढना है-
ऊँ वरुणस्योत्त्म्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद।

इसके बाद किसी साफ़ पत्थर पर सफ़ेद चंदन की लकडी को घिसकर चंदन को किसी साफ़ कटोरी में समेट कर कलश के चारों तरफ़ चन्दन के टीके चारों स्वास्तिकों पर लगाने है,और इस मन्त्र को पढते जाना है-
ऊँ त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पति:,त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान यक्ष्मादमुच्यत।

कलश के अन्दर सर्वोषधि (मुरा,जटामांसी,वच,कुष्ठ,शिलाजीत,हल्दी,दारूहल्दी,सठी,चम्पक,मुस्ता) को डालते वक्त यह मन्त्र पढना है-
ऊँ या औषधी: पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा,मनै नु बभ्रूणामहँ शतं धामानि सप्त च ।

इसके बाद किसी नदी या तालाब के किनारे से सफ़ेद और हरे रंग की दूब जिसकी लम्बाई एक बलिस्त की हो लानी है,उसे कलश के अन्दर डालते वक्त यह मन्त्र पढना है-
ऊँ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुष: परुषस्परि,एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्त्रेण शतेन च।

कलश के ऊपर पंचपल्लव (बरगद,गूलर,पीपल,आम,पाकड के पत्ते) रखते समय यह मन्त्र पढना है-
ऊँ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता,गोभाज इत्किलासथ यत्सन्वथ पूरुषम।

इसके बाद कुशा नामकी घास जो कि अश्विन मास की अमावस्या को विधि पूर्वक लायी गयी हो,उसे कलस के अन्दर डालना है,और इस मन्त्र को पढना है-
ऊँ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभि:,तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्काम: पुने तच्छकेयम।

इसके बाद कलश में सप्तमृत्ति को ( घुडसाल हाथीसाल बांबी नदियों के संगम तालाब राजा के द्वार और गोशाला के मिट्टी) को डालते समय इस मंत्र को पढना चाहिये-
ऊँ स्योना पृथ्वी नो भवानृक्षरा निवेशनी,यच्छा न: शर्म सप्रथा:।

इसके बाद कलश में सुपारी को डालते वक्त यह मंत्र पढते हैं-
ऊँ या: फ़लिनीर्या अफ़ला अपुष्पा याश्च पुष्पिणी:,बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुंचन्त्वँहस:।

इसके बाद कलश में पंचरत्न (सोना हीरा मोती पद्मराग और नीलम) डालने के समय इस मंत्र को पढना चाहिये-
ऊँ परि वाजपति: कविरग्निअर्हव्यान्यक्रमीत,दधद्रत्नानि दाशुषे।

कलश में द्रव्य (चलती हुई मुद्रा) को डालते वक्त इस मंत्र को पढना चाहिये-
ऊँ हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत,स दाधार पृथ्वीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।

कलश के ऊपर वस्त्र पहिनाने के समय इस मंत्र को पढें-
ऊँ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमाऽसदत्स्व:,वासो अग्ने विश्वरूपँ व्ययस्व विभावसो।

कलश के ऊपर पूर्ण पात्र (मिट्टी का बना प्याला जो कलश के साथ कुम्हार से लावें) को रखते समय इस मन्त्र को पढें-
ऊँ पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरा पत,वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्जँ शतक्रतो।

चावल से भरे पूर्णपात्र को कलश पर स्थापित करें और उसपर लाल कपडा लपेट हुये नारियल को इस मंत्र पढकर रखें-
ऊँ या: फ़लिनीर्या अफ़ला अपुष्पा याश्च पुष्पिणी:,बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुंचन्त्वँहस:।

इसके बाद कलश में देवी देवताओं का आवाहन करना चाहिये,सबसे पहले हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र से वरुण का आवाहन करे-
कलश में वरुण का ध्यान और आवाहन-
ऊँ तत्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भि:,अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशँ स मा न आयु: प्र मोषी:।
अस्मिन कलशे वरुणं सांड्ग सपरिवारं सायुधं सशक्तिकमावाहयामि। ऊँ भूभुर्व: स्व: भो वरुण ! इहागच्छ इह तिष्ठ स्थापयामि,पूजयामि मम पूजां गृहाण,ऊँ अपां पतये नम:।

इस मन्त्र को कह कर कलश पर अक्षत और फ़ूल छोड दें,फ़िर हाथ में अक्षत और फ़ूल लेकर चारों वेद एवं अन्य देवी देवताओं का आवाहन करे-
कलश में देवी-देवताओं का आवाहन
कलशस्य मुखे विष्णु: कण्ठे रुद्रळ समाश्रित:,मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा,ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथर्वण:।
अंगेश्च सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता:,अत्र गायत्री सावित्री शान्ति: पुष्टिकरी तथा।
आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारका:,गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धुकावेरि जलेऽस्मिन संनिधिं कुरु।
सर्वे समुद्रा: सरितीर्थानि जलदा नदा:,आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारका:।

इस तरह जलाधिपति वरुणदेव तथा वेदों तीर्थों नदों नदियों सागरों देवियों एवं देवताओं के आवाहन के बाद हाथ में अक्षत पुष्प लेकर निम्नलिखित मन्त्र से कलश की प्रतिष्ठा करें-
प्रतिष्ठा मंत्र
ऊँ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु,विश्वे देवास इह मादयन्तामोउम्प्रतिष्ठ। कलशे वरुणाद्यावाहितदेवता: सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु,ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:।

यह कहकर कलश के पास अक्षत और फ़ूल छोड दें।
कलश में जल के रूप में वरुण की स्थापना की गयी है,सभी प्रधान वस्तुओं के रूप में पृथ्वी के रूप में स्थल कारक सप्तमृत्तिका,औषधि के रूप में सर्वोषधि,स्थल बीज के रूप में सुपाडी,जल बीज के रूप में नारियल,क्योंकि बीज के अन्दर जीव है,और जब जीव है तो आत्मा का आना जरूरी है,कारक कलश है,इस प्रकार वरुणदेवता का ध्यान पूजा आदिक का विवरण इस प्रकार से सम्पन्न किया जाता है।
ध्यान
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,ध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि। (ध्यान के लिये फ़ूल कलश पर छोडें)

आसन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि। (कलश के पास चावल रखें)

पाद्य
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,पादयो: पाद्यम समर्पयामि। (जल चढायें)

अर्ध्य
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,हस्तयोर्ध्यं समर्पयामि। (जल चढायें)

स्नानीय जल
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:.स्नानीयं जलं समर्पयामि। (स्नानीय जल चढायें)

स्नानांग आचमन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,स्नानते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमनीय जल चढायें)

पंचामृत स्नान
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,पंचामृतस्नानं समर्पयामि। (पंचामृत से स्नान करवायें,पंचामृत के लिये दूध,दही,घी,शहद,शक्कर का प्रयोग करें)

गन्धोदक स्नान
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:,गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। (पानी में चन्दन को घिस कर पानी में मिलाकर स्नान करवायें)

शुद्धोदक स्नान
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:.स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि। ( शुद्ध जल से स्नान करवायें)

आचमन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल चढायें)

वस्त्र
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: वस्त्रं समर्पयामि। (वस्त्र चढायें)

आचमन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के जल चढायें)

यज्ञोपवीत
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: यज्ञोपवीतं समर्पयामि। (यज्ञोपवीत चढायें)

आचमन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: यज्ञोपवीतान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल चढायें)

उपवस्त्र
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: उपवस्त्रं समर्पयामि। (उपवस्त्र को चढायें)

आचमन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: उपवस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमन के लिये जल चढायें)

चन्दन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: चन्दनं समर्पयामि। (चन्दन को चढायें)

अक्षत
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: अक्षतान समर्पयामि। (चावलों को चढायें)

पुष्पमाला
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: पुष्पमालां समर्पयामि। (पुष्पमाला चढायें)

नानापरिमल द्रव्य
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: नानापरिमल द्रव्यं समर्पयामि। (नाना परिमल द्रव्य चढायें)

सुगन्धित द्रव्य
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: सुगन्धित द्रव्यं समर्पयामि। (सुगन्धित द्रव्य चढायें)

धूप
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: धूपमाघ्रापयामि। (धूपबत्ती को आघ्रापित करायें)

दीप
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: दीपं दर्शयामि। (दीपक दिखायें)

हस्तप्रक्षालन
दीपक दिखाकर हाथ धो लें।

नैवैद्य
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: सर्वविधं नैवैद्यम निवेदयामि। (नैवैद्य निवेदित करें)

आचमनादि
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: आचमनीयं जलम,मध्ये पानीयं,उत्तरापोऽशने मुखप्रक्षालनार्थे हस्तप्रक्षालनार्थे च जलं समर्पयामि। (आचमनीय जल एवं पानीय तथा मुख और हस्तप्रक्षालन के लिये जल चढायें)

करोद्वर्तन
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: करोद्वर्तनं समर्पयामि। (करोद्वर्तन के लिये गन्ध समर्पित करें)

ताम्बूल
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: ताम्बूलं समर्पयामि। (सुपारी इलायची लौंग सहित पान का ताम्बूल समर्पित करें)

दक्षिणा
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: कृताया: पूजाया: सादुर्गण्यार्थे द्रव्य दक्षिणां समर्पयामि। (दक्षिणा प्रदान करें)

आरती
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: आरार्तिकं समर्पयामि। (आरती करें)

प्रदक्षिणा
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: प्रदक्षिणां समर्पयामि। (प्रदक्षिणा करें)

प्रार्थना
हाथ में पुष्प लेकर इस प्रकार से प्रार्थना करें-

देवदानव संवादे मद्यमाने महोदधौ,उत्पन्नोऽसि तथा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयं।
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवा: सर्वे त्वयि स्थिता:,त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणा: प्रतिष्ठता:।
शिव: स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापति,आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा: सपैतृका:।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यत: कामफ़लप्रदा:,त्वत्प्रसादादिमां पूजां कर्तुमीहे जलोद्भव।
सांनिध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।
नमो नमस्ते स्फ़टिकप्रभाय सुश्वेतहाराय सुमंगलाय,सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधिनाथाय नमो नमस्ते।
ऊँ अपां पतये वरुणाय नम:।

नमस्कार
ऊँ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान समर्पयामि। (इस मन्त्र से नमस्कार पूर्वक पुष्प समर्पित करें)

अब हाथ में जल लेकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण कर जल कलश के पास छोडते हुये समस्त पूजन कर्म भगवान वरुणदेव को निवेदित करें-

समर्पण
कृतेन अनेन पूजनेन कलशे वरुनाद्यावाहितदेवता: प्रीयन्तां न मम।

इति कलश-स्थापना

रामराज्य में प्रकृति और पर्यावरण

रामराज्य में प्रकृति और पर्यावरण

श्री बालकृष्ण जी कुमावत

'पर्यावरण' दो शब्दों का संयोजन है - 'परि' तथा 'आवरण'। 'परि' का आशय चारों ओर तथा 'आवरण' का ढकना या आच्छादन करना है। आकाश, वायु, जल, अग्नि एवं पृथ्वी - इन पाँचों तत्वों की विशुद्धि और पवित्रता से संपूर्ण परिवेश परिशुद्ध हो जाता है और इनमें विकार आ जाने से वातावरण दूषित हो जाता है।

हमारी प्राचीन संस्कृति 'अरण्य-संस्कृति' या 'तपोवन-संस्कृति' के नाम से जानी जाती रही है, पर आज के विकासवाद से उसका रूप प्राय: अस्तित्वविहीन-सा हो रहा है। जिस प्रकार शरीर में वात-पित्त कफ का असंतुलन हमें रुग्ण कर देता है, उसी प्रकार भूमि, जल, वायु आदि में असंतुलन होने पर प्रत्येक जीव-जंतु, पेड़-पौधे और मानव पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रदूषित पर्यावरण अनेक रोगों को जन्म देता हे। इसे नियति न समझकर मानव द्वारा प्रसूत विकृति कहना अधिक ठीक होगा। इसके लिए सचेष्ट रहने की आवश्यकता है।

'श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास जी ने इस बात पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय-शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। इसका प्रमुख कारण यह है कि रामराज्य में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं था। इसीलिए कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।

राम राज बैठे त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका।।
बयस न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु
सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत
दुख काहुहि नाहिं।।
(रा.च.मा. 7।20।7-8; 21।1, 5-6, 8; 21)

वाल्मीकि रामायण में श्रीभरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियाँ बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट-पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"

पाप से पापी की हानि ही नहीं होती अपितु वातावरण भी दूषित होता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रामराज्य में पाप का अस्तित्व नहीं है, इसलिए दु:ख लेशमात्र भी नहीं है। पर्यावरण की शुद्धि तथा उसके प्रबंधन के लिए रामराज्य में सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ की जाती रहीं। वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूलवाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लगाने में सब लोग रुचि लेते थे। नगर के भीतर तथा बाहर का दृश्य मनोहारी था -

सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भाँति करि जतन बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाई।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।
(रा.च.मा. 7।28।1-2)

बापीं तड़ाग अनूप कूद मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
रमानाथ जहं राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।
(रा.च.मा. 7।29।छ.29)

अर्थात सभी लोगों ने विविध प्रकार के फूलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के यत्न करके लगा रखीं हैं। बहुत प्रकार की सुहावनी ललित बेलें सदा वसंत की भाँति फूला करती हैं। नगर की शोभा का जहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, वहाँ बाहर चारों ओर का दृश्य भी अत्यंत रमणीय है। रामराज्य में बावलियाँ और कूप जल से भरे रहते थे, जलस्तर भी काफ़ी ऊपर था। तालाब तथा कुओं की सीढ़ियाँ भी सुंदर और सुविधाजनक थीं। जल निर्मल था। अवधपुरी में सूर्य-कुंड, विद्या-कुंड, सीता-कुंड, हनुमान-कुंड, वसिष्ठ-कुंड, चक्रतीर्थ आदि तालाब थे, जो प्रदुषण से पूर्णत: मुक्त थे। नगर के बाहर- अशोक, संतानक, मंदार, पारिजात, चंदन, चंपक, प्रमोद, आम्र, पनस, कदंब एवं ताल-वृक्षों से संपन्न अनेक वन थे।

'गीतावली' में भी सुंदर वनों-उपवनों के मनोहारी दृश्यों का वर्णन मिलता है -

बन उपवन नव किसलय,
कुसुमित नाना रंग।
बोलत मधुर मुखर खग
पिकबर, गुंजत भृंग।।
(गीतावली उत्तरकांड 21।3)

अर्थात अयोध्या के वन-उपवनों में नवीन पत्ते और कई रंग के पुष्प खिलते रहते थे, चहचहाते हुए पपीहा और सुंदर कोकिल सुमधुर बोली बोलते हैं और भौरें गुंजार करते रहते थे।

रामराज्य में जल अत्यंत निर्मल एवं शुद्ध रहता था, दोषयुक्त नहीं। स्थान-स्थान पर पृथक-पृथक घाट बँधे हुए थे। कीचड़ कहीं भी नहीं होता था। पशुओं के उपयोग हेतु घाट नगर से दूर बने हुए थे और पानी भरने के घाट अलग थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्नान नहीं करता था। नहाने के लिए राजघाट अलग से थे, जहाँ चारों वर्णों के लोग स्नान करते थे -

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बांधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।
दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहां न पुरुष करहिं अस्नाना।।
(रा.च.मा. 7।28; 29।1-2)

रामराज्य में शीतल, मंद तथा सुगंधित वायु सदैव बहती रहती थी -

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर।
मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।
(रा.च.मा. 7।28।3)

पक्षी-प्रेम रामराज्य में अद्वितीय था। पक्षी के पैदा होते ही उसका पालन-पोषण किया जाता था। बचपन से ही पालन करने से दोनों ओर प्रेम रहता था। बड़े होने पर पक्षी उड़ते तो थे किंतु कहीं जाते नहीं थे। पक्षियों को रामराज्य में पढ़ाया और सुसंस्कारित किया जाता था।

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक।
कहहु राम रघुपति जनपालक।।
(रा.च.मा. 7।28।7)

रामराज्य की बाजार-व्यवस्था भी अतुलनीय थी। राजद्वार, गली, चौराहे और बाजार स्वच्छ, आकर्षक तथा दीप्तिमान रहते थे। विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करनेवाले कुबेर के समान संपन्न थे। रामराज्य में वस्तुओं का मोलभाव नहीं होता था। सभी दुकानदार सत्यवादी एवं ईमानदार थे -

बाज़ार स्र्चिर न बनइ बरनत
बस्तु बिनु गथ पाइए।
(रा.च.मा. 7।28)

रामराज्य में तो यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि जो पौधे चरित्र-निर्माण में सहायक हैं, उनका रोपण अधिक किया जाना चाहिए। पर्यावरण-विशेषज्ञों तथा आयुर्वेदशास्त्र की मान्यता है कि तुलसी का पौधा जहाँ सभी प्रकार से स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है वहाँ चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यही कारण है कि रामराज्य में ऋषि-मुनि नदियों के तथा तालाबों के किनारे तुलसी के पौधे लगाते थे -

तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।
(रा.च.मा. 7।29।6)

रामराज्य में सब लोग सत्साहित्य का अनुशीलन करते थे। चरित्रवान और संस्कारवान थे। सबके घरों में सुखद वातावरण था और सभी लोग शासन से संतुष्ट थे। जहाँ राजा अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत करता हो वहाँ का समाज निश्चित ही सदा प्रसन्न एवं समृद्ध रहता है। उन अवधपुरवासियों की सुख-संपदा का वर्णन हज़ार शेष जी भी नहीं कर सकते, जिनके राजा श्रीरामचंद्र जी हैं -

सब के गृह गृह होहिं पुराना।
रामचरित पावन बिधि नाना।
नर अस्र् नारि राम गुन गानहिं।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहं नृप राम बिराज।।
(रा.च.मा. 7।26।7-8; 26)

इस प्रकार रामराज्य में किसी भी प्रकार का दूषित परिवेश नहीं था। राजा तथा प्रजा में परस्पर अटूट स्नेह, सम्मान और सामंजस्य था। मनुष्यों में जहाँ वैरभाव नहीं रहता वहाँ पशु-पक्षी भी अपने सहज वैरभाव को त्याग देते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं - परस्पर प्रेम रखते हैं। वन में पक्षियों के अनेक झुंड निर्भय होकर विचरण करते हैं। उन्हें शिकारी का भय नहीं रहता। गौएँ कामधेनु की तरह मनचाहा दूध देती हैं।

रामराज्य में पृथ्वी सदा खेती से हरी-भरी रहती थी। चंद्रमा उतनी ही शीतलता और सूर्य उतना ही ताप देते थे जितनी ज़रूरत होती थी। पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी थीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और सुख देनेवाला जल बहाती थीं। जब जितनी ज़रूरत होती थी, मेघ उतना ही जल बरसाते थे -

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
रहहिं एक संग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई।
सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा।
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
लता बिटप मागें मधु चवहिं।
मनभावतो धेनु पय स्रवहीं।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।
(रा.च.मा. 7।23।१1-3, 5; 23)

रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने सूत्ररूप में यह संकेत दिया है कि पर्यावरण-संतुलन तथा पर्यावरण-प्रबंधन में शासक और प्रजा का संयुक्त उत्तरदायित्व होता है। दोनों के परस्पर सहयोग, स्नेह, सम्मान, सौहार्द तथा सामंजस्य से ही समाज एवं राष्ट्र को दोषमुक्त किया जा सकता है। पर्यावरण-चेतना का शासक और प्रजा दोनों में पर्याप्त विकास होना चाहिए। राज्य की व्यवस्था में प्रजा का पूर्ण सहयोग हो और प्रजा की सुख-सुविधा का शासक पूरा-पूरा ध्यान रखे - यही रामराज्य का संदेश है।

बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग

बजरंग बाण

भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग

अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जपकरते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथाशान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थितहनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।

हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वालेदिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लेंअथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकारके धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहनाचाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।

जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भीकरते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भकरें। “श्रीराम से लेकर सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है।

गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत काप्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हेंकम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।

बजरंग बाण ध्यान

श्रीराम


अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।

चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।


जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।


जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।


अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।


अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।


जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।


गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।


ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।


जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।


वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।


जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।


भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।


जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।


उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।


ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।


ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।


हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।


जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।


जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।


जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।


राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।


तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।


सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।


याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।


पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।


भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।


आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।


यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।


दोहा

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग

१॰ ऐश्वर्य प्राप्ति
‘माता सीता की स्तुति’ का नित्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ करें।

“उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ५)”

अर्थः- उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों की करने वालीश्रीरामचन्द्र की प्रियतमा श्रीसीता को मैं नमस्कार करता हूँ।।

२॰ दुःख-नाश
‘भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।

“यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ६)

अर्थः- सारा विश्व जिनकी माया के वश में है और ब्रह्मादि देवता एवं असुर भी जिनकी माया के वश-वर्ती हैं। यह सबसत्य जगत् जिनकी सत्ता से ही भासमान है, जैसे कि रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है। भव-सागर के तरने कीइच्छा करनेवालों के लिये जिनके चरण निश्चय ही एक-मात्र प्लव-रुप हैं, जो सम्पूर्ण कारणों से परे हैं, उन समर्थ, दुःख हरने वाले, श्रीराम है नाम जिनका, मैं उनकी वन्दना करता हूँ।

३॰ सर्व-रक्षा
‘भगवान् शिव की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।

“यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट,
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः
सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰१)

अर्थः- जिनकी गोद में हिमाचल-सुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ मेंहलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहार-कर्त्ता, सर्व-व्यापक, कल्याण-रुप, चन्द्रमा के समान शुभ्र-वर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।

४॰ सुखमय पारिवारिक जीवन
‘श्रीसीता जी के सहित भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।

“नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम,
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰ ३)

अर्थः- नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम-भाग में विराजमान हैं औरजिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कारकरता हूँ।।

५॰ सर्वोच्च पद प्राप्ति
श्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
छंदः-
“नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥
पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥
व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड)

‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतःजीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति केसामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।

६॰ प्रतियोगिता में सफलता-प्राप्ति
श्री सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा श्रीराम-स्तुति का नित्य पाठ करें।

“श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥१॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥२॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥३॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥४॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥५॥
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥६॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥७॥” (अरण्यकाण्ड)

विशेषः
“संशय-सर्प-ग्रसन-उरगादः, शमन-सुकर्कश-तर्क-विषादः।
भव-भञ्जन रञ्जन-सुर-यूथः, त्रातु सदा मे कृपा-वरुथः।।”
उपर्युक्त श्लोक अमोघ फल-दाता है। किसी भी प्रतियोगिता के साक्षात्कार में सफलता सुनिश्चित है।

७॰ सर्व अभिलाषा-पूर्ति
‘श्रीहनुमान जी कि स्तुति’ का नित्य पाठ करें।

“अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।” (सुन्दरकाण्ड, श्लो॰३)

८॰ सर्व-संकट-निवारण
‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥

न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥
विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकारका शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भीतीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकरनाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।

श्री रामचरित मानस के सिद्ध मन्त्र

नियम

मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बादअष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लियेनित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान कीहै-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।

अष्टांग हवन सामग्री

१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।

जानने की बातें-

जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिनहवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिनकरना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुतिमें चौपाई आदि के अन्त में ‘स्वाहा’ बोल देना चाहिये।
प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एकसेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा यामिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।
हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का याकुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।
मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये।दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।
सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जलया कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करनाचाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसकेलिये अलग हवन करके करना होगा।
एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।
कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयोंको पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।

१॰ विपत्ति-नाश के लिये
“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”


२॰ संकट-नाश के लिये
“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”


३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”


४॰ विघ्न शांति के लिये
“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”


५॰ खेद नाश के लिये
“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”


६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”


७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”


८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”


९॰ विष नाश के लिये
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”


१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”


११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”


१२॰ नजर झाड़ने के लिये
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”


१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”


१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”


१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”


१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”


१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’


१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”


१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”


२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।


२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”


२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”


२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”


२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”


२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”


२६॰ शत्रुतानाश के लिये
“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”


२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”


२८॰ विवाह के लिये
“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”


२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”


३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”


३१॰ आकर्षण के लिये
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”


३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”


३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।


३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥


३५॰ उत्सव होने के लिये
“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”


३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”


३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥


३८॰ कातर की रक्षा के लिये
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”


३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥


४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”


४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”


४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”


४३॰ विरक्ति के लिये
“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”


४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”


४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”


४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”


४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”


४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”


४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”


५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”


५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”

गुरु महिमा

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात दो अक्षरों से मिलकर बने 'गुरु' शब्द का अर्थ - प्रथम अक्षर 'गु का अर्थ- 'अंधकार' होता है जबकि दूसरे अक्षर 'रु' का अर्थ- 'उसको हटाने वाला' होता है।

अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है। श्री सद्गुरु आत्म-ज्योति पर पड़े हुए विधान को हटा देता है।

ओशो कहते है गुरु के बारे में कि 'गुरु का अर्थ है- ऐसी मुक्त हो गई चेतनाएं, जो ठीक बुद्ध और कृष्ण जैसी हैं, लेकिन तुम्हारी जगह खड़ी हैं, तुम्हारे पास हैं। कुछ थो़ड़ा सा ऋण उनका बाकी है- शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है।...गुरु एक पैराडॉक्स है, एक विरोधाभास है : वह तुम्हारे बीच और तुमसे बहुत दूर, वह तुम जैसा और तुम जैसा बिलकुल नहीं, वह कारागृह में और परम स्वतंत्र।

अगर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और है वह, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों-सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे।'

रामाश्रयी धारा के प्रतिनिधि गोस्वामीजी वाल्मीकि से राम के प्रति कहलवाते हैं कि- तुम तें अधिक गुरहिं जिय जानी। राम आप तो उस हृदय में वास करें- जहाँ आपसे भी गुरु के प्रति अधिक श्रद्धा हो। लीलारस के रसिक भी मानते हैं कि उसका दाता सद्गुरु ही है- श्रीकृष्ण तो दान में मिले हैं। सद्गुरु लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं। संतजन कहते हैं-

राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥

गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं।
गुरु ने जो नियम बताए हैं उन नियमों पर श्रद्धा से चलना उस संप्रदाय के शिष्य का परम कर्तव्य है। गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है। राजा दशरथ के दरबार में गुरु- वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है, जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था।

गुरु की भूमिका भारत में केवल आध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है, देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। अतः सद्गुरु की ऐसी महिमा के कारण उसका व्यक्तित्व माता-पिता से भी ऊपर है।

गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- 'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु' अर्थात जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।

संत कबीर कहते हैं-'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥'

अर्थात भगवान के रूठने पर तो गुरू की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरू के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना सम्भव नहीं है। जिसे ब्राह्मणों ने आचार्य, बौद्धों ने कल्याणमित्र, जैनों ने तीर्थंकर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सद्गुरु कहा है उस श्री गुरू से उपनिषद् की तीनों अग्नियाँ भी थर-थर काँपती हैं। त्रोलोक्यपति भी गुरू का गुणनान करते है। ऐसे गुरू के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं। अपने दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते है

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार लोचन अनंत, अनंत दिखावण हार- अर्थात सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए है। उसने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की बंद ऑखों को ज्ञानचक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है। आगे इसी प्रसंग में वे लिखते है। भली भई जुगुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि। दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि।

अर्थात अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा अहित होता। जैसे सामान्यजन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते है। वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता। जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्यजन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको निछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती। अतः सद्गुरु की महिमा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते है, मुझ मानुष की बिसात क्या। दुनिया के समस्त गुरुओं को मेरा नमन।





गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु है, गुरु ही जान महेश।
गुरु महिमा नहीं कह सकें, सहस शारदा शेष॥॥

ब्रह्मा जी सृष्टि रचें विष्णू रक्षा कार्य।
प्रलय कार्य शंकर करें, सद्गुरु तीनों कार्य॥॥

गुरु-ज्ञान प्रतिरूप है, गुरु ब्रह्म और ईश।
गुरु अनुकम्पा के बिना, मिलें नहीं जगदीश॥॥

गुरु समझो उस व्यक्ति को, जिसका तन-मन एक।
करनी-कथनी एक सी, बात कहे सविवेक॥॥

जीव-ब्रह्म और जगत्‌ का, गुरु दे भेद बताय।
दरस-परस से हृदय का, कल्मष देय भगाय॥॥

गुरु वाणी का भूलकर, करो नहीं अपमान।
सात जन्म में भी नहीं, होगा पिफर कल्याण॥।

बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान॥॥

गुरु बिन ज्ञान न होय मन, तेहि बिन मोह न भाग।
मोह गए बिन कल्प सत, होय न दृढ़ अनुराग॥॥

शिव सम अवगुन नष्ट कर, पोषे विष्णु समान।
ब्रह्मा सम सर्जन करें, मन में भगती-ज्ञान॥॥

गुरु महिमा की मित नहीं, गावत वेद पुरान।
भट्ट निरक्षर भी भए, कृपा-कोर विद्वान॥॥

अन्ध्कार-अज्ञान-निशि, गुरु-रवि देत नसाय।
बिनु दिनेश नहि तम नसै, कीजै कोटि उपाय॥॥

पूर्व पुण्य प्रारब्ध से, पावे गुरु-आशीष।
गुरु अशीष अरु कृपा से, द्रवैं राम जगदीश॥॥

परम मंत्र विश्वास है, गुरु-मुख निकला शब्द।
दृढ़ निश्चय नियमित जपै, व्यक्त होय अव्यक्त॥॥

श्री गुरु

श्री गुरु पादुका पंचकम्


ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यों |
नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः ||
आचार्य सिध्देश्वर पादुकाभ्यों
नमोस्तु लक्ष्मीपति पादुकाभ्यः ||1||
सभी गुरुओं को नमस्कार, सभी गुरुओं की पादुकाओं को नमस्कार | श्री गुरुदेव जी के गुरुओं अथवा परगुरुओं एवं उनकी पादुकाओं को नमस्कार |

आचार्यों एवं सिद्ध विद्याओं के स्वामी की पादुकाओं को नमस्कार | बारंबार श्री गुरुपादुकाओं को नमस्कार |

कामादि सर्प व्रजगारुडाभ्यां |
विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्यां ||

बोध प्रदाभ्यां द्रुत मोक्षदाभ्यां |

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||2||



यह अंतः करण के काम क्रोध आदि महा सर्पों के विष को उतारने वाली विष वैद्य है | विवेक अर्थात अन्तरज्ञान एवं वैराग्य का भंडार देने वाली है | जो प्रत्यक्ष ज्ञान प्रदायिनी एवं शीघ्र मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं | श्री गुरुदेव की ऐसी पादुकाओं को नमस्कार है नमस्कार है |


अनंत संसार समुद्रतार,
नौकायिताभ्यां स्थिर भक्तिदाभ्यां |
जाक्याब्धि संशोषण बाड़याभ्यां,
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||3||


अंतहीन संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिये जो नौका बन गई है | अविचल भक्ति देने वाली आलस्य प्रमाद और अज्ञान रूपी जड़ता के समुद्र को भस्म करने के लिये जो वडवाग्नि समान है ऐसी श्री गुरुदेव की चरण की चरण पादुकाओं को नमस्कार हो, नमस्कार हो |





ऊँकार ह्रींकार रहस्ययुक्त
श्रींकार गुढ़ार्थ महाविभुत्या |
ऊँकार मर्मं प्रतिपादिनीभ्यां
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||4||


जो वाग बीज ॐकार और माया बीज ह्रैमीं कार के रहस्य से युक्त षोढ़सी बीज श्रींकार के गुढ़ अर्थ को महान ऐश्वर्य से ॐ कार के मर्मस्थान को प्रगट करनेवाली हैं | ऐसी श्री गुरुदेव की चरण पादुकाओं को नमस्कार हो, नमस्कार हो |

होत्राग्नि, हौत्राग्नि हविष्य होतृ
होमादि सर्वकृति भासमानम् |
यद ब्रह्म तद वो धवितारिणीभ्यां,
नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||5||

होत्र और हौत्र ये दोनों प्रकार की अग्नियों में हवन सामग्री होम करने वाला होता हैं और होम आदि रूप में भासित एक ही परब्रह्म तत्त्व का साक्षात अनुभव कराने वाले श्री गुरुदेव की चरण पादुकाओं को नमस्कार हो, नमस्कार हो |



गुरु स्तवन


गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः |

गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम् |

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ||

अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् |

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव |

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ||


ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं |

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम् ||

एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् |

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ||


श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों का महात्म्य


सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् |

वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ||


गुरु सेवा श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलों वाले हैं और वेदान्त के अर्थों के प्रवक्ता हैं | इसलिए श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए |


देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थं वदामि तत् |

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पाद्सेवनात् ||

जिस गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिये कहता हूँ |


शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः |

गुरोः पादोदकं समयक् संसारार्णवतारकम् ||



श्री गुरुदेव का चरणामृत पापरूपी कीचड़ का सम्यक् शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक उद्यीपक है और संसार सागर का सम्यक तारक है |


अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् |

ज्ञानवैराग्यसिध्यर्थं गुरु पादोदकं पिबेत् ||


अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जन्मों के कर्मों को निवारने वाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरु चरणामृत का पान करना चाहिए |




काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम् |

गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात तारकं ब्रह्मनिश्चयः ||

गुरुदेव का निवासस्थान काशीक्षेत्र है | श्री गुरुदेव का चरणामृत गंगाजी है | गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और साक्षात तारक ब्रह्म हैं यह निश्चित है |



गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः |

तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनस्ततम् ||


गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है | गुरुदेव का शरीर अक्षय वट वृक्ष है | गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं | वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है |


सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत् |

गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम् ||

सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्री गुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा हैं |


दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् |

तादृशस्यैव कैवल्यं न च तदव्यतिरेकिणः ||



जब तक दृश्यप्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा-अर्चना करनी चाहिए | ऐसा करनेवाले को ही कैवल्यपद की प्राप्ति होती है, इससे विपरीत करने वाले को नहीं होती |


पादुकासनशैय्यादि गुरुणा यदाभिष्टितम् |

नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् ||


पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सबको नमस्कार करना चाहिए और उनको पैर से कभी भी नहीं छूना चाहिए |



विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया |

ये वै सन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः ||



श्री गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे सन्यासी हैं | अन्य तो मात्र वेशधारी हैं |


चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्रभाकरे न हि |

गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम् ||


गुरुदेव के श्रीचरणों में वेदान्तनिर्दिष्ट सुख है वह सुख न चार्वाक मत है, न वैष्णव मत है और न ही प्रभाकर (सांख्य) मत में है |


गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम् |

सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चराणाम्बुजम् ||


गुरुभक्ति ही श्रेष्ठ तीर्थ है | अन्य तीर्थ निरर्थक हैं | हे देवी ! श्री गुरुदेव के चरणकमल सर्व तीर्थमय हैं |


सर्वतीर्थवगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः |

गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन् ||



श्री सदगुरुदेव के चरणामृत का पान करने से और उसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्य सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त करता है |


गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्ट भोजनम् |

गुरुमूर्ते सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः ||



गुरुदेव के चरणामृत पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए |


यस्य प्रसादहमेव सर्वं मय्येव सर्वं परिकल्पितं च |

इत्थं विजानामि सदात्मरूपं तस्यांघ्रिपदं प्रणोतोस्मि नित्यम् |



मैं ही सब हूँ | मुझसे ही सब कल्पित है | ऐसा ज्ञान जिनकी कृपा से हुआ ऐसे आत्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों में मैं नित्य प्रणाम करता हूँ |



आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः |

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः ||



हे देवी ! कल्प पर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, यह सब गुरुदेव के संतोष मात्र से सफल हो जाता है |


ऐसे महिमावान श्री सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों का षोड़शोपचार से पूजन करने से साधक-शिष्य का हृदय शीघ्र शुद्ध और उन्नत बन जाता है | मानसपूजा भी इस प्रकार कर सकते हैं |


मन ही मन भावना करो कि हम गुरुदेव के श्री चरण धो रहे हैं … सर्वतीर्थों के जल से उनके पादारविन्द को स्नान करा रहे हैं | खूब आदर एवं कृतज्ञतापूर्वक उनके श्रीचरणों में दृष्टि रखकर … श्रीचरणों को प्यार करते हुए उनको नहला रहे हैं … उनके तेजोमय ललाट में शुद्ध चन्दन से तिलक कर रहे हैं … अक्षत चढ़ा रहे हैं … अपने हाथों से बनाई हुई गुलाब के सुन्दर फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं … पाँच कर्मेन्द्रियों की, पाँच ज्ञानेन्द्रियों की एवं ग्यारवें मन की चेष्टाएँ गुरुदेव के श्री चरणों में अर्पित कर रहे हैं …


कायेन वाचा मनसेन्द्रियैवा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् |

करोमि यद् यद् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ||



शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव से जो जो करते करते हैं वह सब समर्पित करते हैं | हमारे जो कुछ कर्म हैं, हे गुरुदेव, वे सब आपके श्री चरणों में समर्पित हैं … हमारा कर्त्तापन का भाव, हमारा भोक्तापन का भाव आपके श्रीचरणों में समर्पित है |


इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा को, ज्ञान को, आत्मशान्ति को, हृयद में भरते हुए, उनके अमृत वचनों पर अडिग बनते हुए अन्तर्मुख हो जाओ … आनन्दमय बनते जाओ … ॐ आनंद ! ॐ आनंद ! ॐ आनंद !

श्री नारायण कवच

न्यास- सर्वप्रथम श्रीगणेश जी तथा भगवान नारायण को नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करें -
अङ्गन्यासः
ऊँ ऊँ नमः -- पादयोः( दाहिने हाँथ की तर्जनी-अङ्गुष्ठ -- इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों का स्पर्श)
ऊँ नं नमः -- जानुनोः ( दाहिने हाँथ की तर्जनी-- अङ्गुष्ठ --- इन दोनों को मिलाकर दोनों घुटनों का स्पर्श करें )
ऊँ मों नमः -- ऊर्वोः (दहिंने हाथ की तर्जनी अङ्गुष्ठ -- इन दोनों को मिलाकर दोनों पैरों की जाँघ का स्पर्श करे )
ऊँ नां नमः -- उदरे
( दाहिने हाथ की तर्जनी -- अङ्गुष्ठ --- इन दोनों को मिलाकर पेट का स्पर्श करे )
ऊँ रां नमः -- हृदि ( मध्यमा-अनामिका-तर्जनी से हृदय का स्पर्श करे )
ऊँ यं नमः - उरसि ( मध्यमा- अनामिका-तर्जनी से छाती का स्पर्श करे )
ऊँ णां नमः -- मुखे ( तर्जनी - अँगुठे के अंयोग से मुख का स्पर्श करे )
ऊँ यं नमः -- शिरसि ( तर्जनी -मध्यमा के संयोग से सिर का स्पर्श करे )

करन्यासः

ऊँ ऊँ नमः --- दक्षिणतर्जन्याम् ( दाहिने अँगुठे से दाहिने तर्जनी के सिरे का स्पर्श करे )
ऊँ नं नमः ----दक्षिणमध्यमायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ऊँ मों नमः ---दक्षिणानामिकायाम् ( दहिने अँगुठे से दाहिने हाथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ऊँ भं नमः ----दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगुठे से हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ऊँ गं नमः ----वामकनिष्ठिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की कनिष्ठिका का ऊपर वाला पोर स्पर्श करे )
ऊँ वं नमः ----वामानिकायाम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाँथ की अनामिका का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे ) ऊँ तें नमः ----वाममध्यमायाम् ( बाँये अँगुठे से बाये हाथ की मध्यमा का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे ) ऊँ वां नमः ---वामतर्जन्याम् ( बाँये अँगुठे से बाँये हाथ की तर्जनी का ऊपरवाला पोर स्पर्श करे )
ऊँ सुं नमः ----दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का ऊपरवाला पोर छुए )
ऊँ दें नमः -----दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( दाहिने हाथ की चारों अँगुलियों से दाहिने हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
ऊँ वां नमः -----वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये अँगुठे के ऊपरवाला पोर छुए )
ऊँ यं नमः ------वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि ( बाँये हाथ की चारों अँगुलियों से बाँये हाथ के अँगुठे का नीचे वाला पोर छुए )
विष्णुषडक्षरन्यासः
ऊँ ऊँ नमः ------------हृदये ( तर्जनी - मध्यमा एवं अनामिका से हृदय का स्पर्श करे )
ऊँ विं नमः -------------मूर्धनि ( तर्जनी मध्यमा के संयोग सिर का स्पर्श करे )
ऊँ षं नमः ---------------भ्रुर्वोर्मध्ये ( तर्जनी-मध्यमा से दोनों भौंहों का स्पर्श करे )
ऊँ णं नमः ---------------शिखायाम् ( अँगुठे से सिखा का स्पर्श करे )
ऊँ वें नमः ---------------नेत्रयोः ( तर्जनी -मध्यमा से दोनों नेत्रों का स्पर्श करे )
ऊँ नं नमः ---------------सर्वसन्धिषु ( तर्जनी - मध्यमा और अनामिका से शरीर के सभी जोड़ों -- जैसे - कंधा ,घुटना ,कोहनी आदि का स्पर्श करे )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- प्राच्याम् (पूर्व की ओर चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् --आग्नेय्याम् ( अग्निकोण में चुटकी बजायें )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- दक्षिणस्याम् ( दक्षिण की ओर चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- नैऋत्ये (नैऋत्य कोण में चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- प्रतीच्याम्( पश्चिम की ओर चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- वायव्ये ( वायुकोण में चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- उदीच्याम्( उत्तर की ओर चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- ऐशान्याम् (ईशानकोण में चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- ऊर्ध्वायाम् ( ऊपर की ओर चुटकी बजाएँ )
ऊँ मः अस्त्राय फट् -- अधरायाम् (नीचे की ओर चुटकी बजाएँ )

श्री हरिः अथ श्रीनारायणकवच ( श्रीमद्भागवत स्कन्ध 6 , अ। 8 )राजोवाच

यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान् क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् 1
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे 2


राजा परिक्षित ने पूछा --- भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल में अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग किया , आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की 1-2

श्रीशुक उवाच वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु 3

श्रीशुकदेवजी ने कहा --- परीक्षित्! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया ,तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो 3

विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः 4

नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि 5

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत् ऊँ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा 6

विश्वरूप ने कहा -- देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए उसकी विधि यह है कि पहले हाँथ-पैर धोकर आचमन करे ,फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुख करके बैठ जाय इसके बाद कवच धारण पर्यंत और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से ' ऊँ नमो नारायणाय ' और ' ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ' ---- इन मंत्रों के द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि करन्यास करे पहले ' ऊँ नमो नारायणाय ' इस अष्टाक्षर मन्त्र के ऊँ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों , घुटनों ,जाँघों , पेट , हृदय ,वक्षःस्थल , मुख , और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ऊँ कार तक आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ कर उन्हीं आठ अङ्गों में विपरित क्रम से न्यास करे 4-6

करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु 7

तदनन्तर ' ऊँ ' नमो भगवते वासुदेवाय ' इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ऊँ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे 7

न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् 8

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः 9

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ऊँ विष्णवे नम इति 10


फिर ' ऊँ विष्णवे नमः ' इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर 'ऊँ ' का हृदय में , ' वि ' का ब्रह्मरन्ध्र , में ' ष ' का भौहों के बीच में ,'ण ' का चोटी में , ' वे ' का दोनों नेत्रों और 'न' का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर 'ऊँ मः अस्त्राय फट्' कहकर दिग्बन्द करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्र हो जाता है 8-10

आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत 11

इसके बाद समग्र ऐश्वर्य , धर्म , यश , लक्ष्मी , ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या , तेज , और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे 11

ऊँ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः 12

भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख ,चक्र , ढाल ,तलवार , गदा , बाण , धनुष , और पाश (फंदा ) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात् स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः 13

मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 13

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः 14

जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे , वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले ,जंगल , रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें 14

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः रामो द्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् 15

अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में ,परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें 15

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात् दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् 16

भगवान् नारायण मारण - मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से , योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें 16

सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् 17

परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से , हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से , देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें 17

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः 18

भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से ,जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से , यज्ञ भगवान् लोकापवाद से , बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें 18

द्वेपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात् कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः 19

भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म -रक्षा करने वाले महान अवतार धरण करने वाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें 19

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः 20

प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर ,कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर ,दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें 20

देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम् दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः 21

तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रच ण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव ,सूर्यास्त के बाद हृषिकेश ,अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें 21

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः 22

रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि , उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन , सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें 22

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम् दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः 23

सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है , वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये , जला दीजिये 23

गदे शनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् 24

कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक , यक्ष , राक्षस , भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये , कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर - चूर कर दिजिये 24

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् 25

शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान , प्रमथ , प्रेत , मातृका , पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से झटपट भगा दीजिये 25

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् 26

भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये आन्धा बना दीजिये 26

यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा 27

सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः 28

सूर्य आदि ग्रह , धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु , दुष्ट मनुष्य , सर्पादि रेंगने वाले जन्तु , दाढ़ोंवाले हिंसक पशु , भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो - जो भय हो और जो -जो हमारे मङ्गल के विरोधि हों --- वे सभी भगावान् के नाम , रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जाँय 27 - 28

गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः 29
बृहद् , रथ न्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है , वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें 29

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः 30
श्रीहरि के नाम , रूप, वाहन , आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचाये 30

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत् सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः 31

जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है , वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जाँय 31

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया 32

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः 33

जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं , उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है - भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण , आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ , सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें 32-33
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजः 34
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं , वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में , नीचे -ऊपर , बाहर -भीतर - सब ओर से हमारी रक्षा करें 34

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम् विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् 35

देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस , फिर तुम अनायास ही सब दैत्य - यूथपतियों को जीत कर लोगे 35

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते 36

इस नारायण कवच को धारन करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है , तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है 36

न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् 37

जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है , उसे राजा, डाकू , प्रेत , पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता 37

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि 38

देवराज! प्राचीनकाल की बात है , एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया 38

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः 39

जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था , उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले 39

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् 40

वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है , तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये

श्रीशुक उवाचय इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् 41

श्रीशुकदेवजी कहते हैं - परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है ,उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है 41

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान् 42

परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे 42

भैरव वशीकरण मन्त्र

भैरव वशीकरण मन्त्र
भैरव वशीकरण मन्त्र१॰ “ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक-नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”विधिः- सर्व-प्रथम किसी रविवार को गुग्गुल, धूप, दीपक सहित उपर्युक्त मन्त्र का पन्द्रह हजार जप कर उसे सिद्ध करे। फिर आवश्यकतानुसार इस मन्त्र का १०८ बार जप कर एक लौंग को अभिमन्त्रित लौंग को, जिसे वशीभूत करना हो, उसे खिलाए।
२॰ “ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर। गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश। जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण। पकड़ पलना ल्यावे। काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”विधिः- २१,००० जप। आवश्यकता पड़ने पर २१ बार गुड़ को अभिमन्त्रित कर साध्य को खिलाए।
३॰ “ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा।”विधिः- उक्त मन्त्र को सात बार पढ़कर पीपल के पत्ते को अभिमन्त्रित करे। फिर मन्त्र को उस पत्ते पर लिखकर, जिसका वशीकरण करना हो, उसके घर में फेंक देवे। या घर के पिछवाड़े गाड़ दे। यही क्रिया ‘छितवन’ या ‘फुरहठ’ के पत्ते द्वारा भी हो सकती है।

नजर उतारने के उपाय

नजर उतारने के उपाय१॰
1 बच्चे ने दूध पीना या खाना छोड़ दिया हो, तो रोटी या दूध को बच्चे पर से ‘आठ’ बार उतार के कुत्ते या गाय को खिला दें।
२॰ नमक, राई के दाने, पीली सरसों, मिर्च, पुरानी झाडू का एक टुकड़ा लेकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर से ‘आठ’ बार उतार कर अग्नि में जला दें। ‘नजर’ लगी होगी, तो मिर्चों की धांस नहीँ आयेगी।
३॰ जिस व्यक्ति पर शंका हो, उसे बुलाकर ‘नजर’ लगे व्यक्ति पर उससे हाथ फिरवाने से लाभ होता है।
४॰ पश्चिमी देशों में नजर लगने की आशंका के चलते ‘टच वुड’ कहकर लकड़ी के फर्नीचर को छू लेता है। ऐसी मान्यता है कि उसे नजर नहीं लगेगी।
५॰ गिरजाघर से पवित्र-जल लाकर पिलाने का भी चलन है।
६॰ इस्लाम धर्म के अनुसार ‘नजर’ वाले पर से ‘अण्डा’ या ‘जानवर की कलेजी’ उतार के ‘बीच चौराहे’ पर रख दें। दरगाह या कब्र से फूल और अगर-बत्ती की राख लाकर ‘नजर’ वाले के सिरहाने रख दें या खिला दें।
७॰ एक लोटे में पानी लेकर उसमें नमक, खड़ी लाल मिर्च डालकर आठ बार उतारे। फिर थाली में दो आकृतियाँ- एक काजल से, दूसरी कुमकुम से बनाए। लोटे का पानी थाली में डाल दें। एक लम्बी काली या लाल रङ्ग की बिन्दी लेकर उसे तेल में भिगोकर ‘नजर’ वाले पर उतार कर उसका एक कोना चिमटे या सँडसी से पकड़ कर नीचे से जला दें। उसे थाली के बीचो-बीच ऊपर रखें। गरम-गरम काला तेल पानी वाली थाली में गिरेगा। यदि नजर लगी होगी तो, छन-छन आवाज आएगी, अन्यथा नहीं।
८॰ एक नींबू लेकर आठ बार उतार कर काट कर फेंक दें।
९॰ चाकू से जमीन पे एक आकृति बनाए। फिर चाकू से ‘नजर’ वाले व्यक्ति पर से एक-एक कर आठ बार उतारता जाए और आठों बार जमीन पर बनी आकृति को काटता जाए।
१०॰ गो-मूत्र पानी में मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलाए और उसके आस-पास पानी में मिलाकर छिड़क दें। यदि स्नान करना हो तो थोड़ा स्नान के पानी में भी डाल दें।
११॰ थोड़ी सी राई, नमक, आटा या चोकर और ३, ५ या ७ लाल सूखी मिर्च लेकर, जिसे ‘नजर’ लगी हो, उसके सिर पर सात बार घुमाकर आग में डाल दें। ‘नजर’-दोष होने पर मिर्च जलने की गन्ध नहीं आती।
१२॰ पुराने कपड़े की सात चिन्दियाँ लेकर, सिर पर सात बार घुमाकर आग में जलाने से ‘नजर’ उतर जाती है।
१३॰ झाडू को चूल्हे / गैस की आग में जला कर, चूल्हे / गैस की तरफ पीठ कर के, बच्चे की माता इस जलती झाडू को 7 बार इस तरह स्पर्श कराए कि आग की तपन बच्चे को न लगे। तत्पश्चात् झाडू को अपनी टागों के बीच से निकाल कर बगैर देखे ही, चूल्हे की तरफ फेंक दें। कुछ समय तक झाडू को वहीं पड़ी रहने दें। बच्चे को लगी नजर दूर हो जायेगी।
१४॰ नमक की डली, काला कोयला, डंडी वाली 7 लाल मिर्च, राई के दाने तथा फिटकरी की डली को बच्चे या बड़े पर से 7 बार उबार कर, आग में डालने से सबकी नजर दूर हो जाती है।
१५॰ फिटकरी की डली को, 7 बार बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर आग में डालने से नजर तो दूर होती ही है, नजर लगाने वाले की धुंधली-सी शक्ल भी फिटकरी की डली पर आ जाती है।
१६॰ तेल की बत्ती जला कर, बच्चे/बड़े/पशु पर से 7 बार उबार कर दोहाई बोलते हुए दीवार पर चिपका दें। यदि नजर लगी होगी तो तेल की बत्ती भभक-भभक कर जलेगी। नजर न लगी होने पर शांत हो कर जलेगी।
१७॰ “नमो सत्य आदेश। गुरु का ओम नमो नजर, जहाँ पर-पीर न जानी। बोले छल सो अमृत-बानी। कहे नजर कहाँ से आई ? यहाँ की ठोर ताहि कौन बताई ? कौन जाति तेरी ? कहाँ ठाम ? किसकी बेटी ? कहा तेरा नाम ? कहां से उड़ी, कहां को जाई ? अब ही बस कर ले, तेरी माया तेरी जाए। सुना चित लाए, जैसी होय सुनाऊँ आय। तेलिन-तमोलिन, चूड़ी-चमारी, कायस्थनी, खत-रानी, कुम्हारी, महतरानी, राजा की रानी। जाको दोष, ताही के सिर पड़े। जाहर पीर नजर की रक्षा करे। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”विधि- मन्त्र पढ़ते हुए मोर-पंख से व्यक्ति को सिर से पैर तक झाड़ दें।

१८॰ “वन गुरु इद्यास करु। सात समुद्र सुखे जाती। चाक बाँधूँ, चाकोली बाँधूँ, दृष्ट बाँधूँ। नाम बाँधूँ तर बाल बिरामनाची आनिङ्गा।”

विधि- पहले मन्त्र को सूर्य-ग्रहण या चन्द्र-ग्रहण में सिद्ध करें। फिर प्रयोग हेतु उक्त मन्त्र के यन्त्र को पीपल के पत्ते पर किसी कलम से लिखें। “देवदत्त” के स्थान पर नजर लगे हुए व्यक्ति का नाम लिखें। यन्त्र को हाथ में लेकर उक्त मन्त्र ११ बार जपे। अगर-बत्ती का धुवाँ करे। यन्त्र को काले डोरे से बाँधकर रोगी को दे। रोगी मंगलवार या शुक्रवार को पूर्वाभिमुख होकर ताबीज को गले में धारण करें।

१९॰ “ॐ नमो आदेश। तू ज्या नावे, भूत पले, प्रेत पले, खबीस पले, अरिष्ट पले- सब पले। न पले, तर गुरु की, गोरखनाथ की, बीद याहीं चले। गुरु संगत, मेरी भगत, चले मन्त्र, ईश्वरी वाचा।”विधि- उक्त मन्त्र से सात बार ‘राख’ को अभिमन्त्रित कर उससे रोगी के कपाल पर टिका लगा दें। नजर उतर जायेगी।

२०॰ “ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय, ह्रीं धरणेन्द्र-पद्मावती सहिताय। आत्म-चक्षु, प्रेत-चक्षु, पिशाच-चक्षु-सर्व नाशाय, सर्व-ज्वर-नाशाय, त्रायस त्रायस, ह्रीं नाथाय स्वाहा।”विधि- उक्त जैन मन्त्र को सात बार पढ़कर व्यक्ति को जल पिला दें।

२१॰ “टोना-टोना कहाँ चले? चले बड़ जंगल। बड़े जंगल का करने ? बड़े रुख का पेड़ काटे। बड़े रुख का पेड़ काट के का करबो ? छप्पन छुरी बनाइब। छप्पन छुरी बना के का करबो ? अगवार काटब, पिछवार काटब, नौहर काटब, सासूर काटब, काट-कूट के पंग बहाइबै, तब राजा बली कहाईब।”विधि- ‘दीपावली’ या ‘ग्रहण’-काल में एक दीपक के सम्मुख उक्त मन्त्र का २१ बार जप करे। फिर आवश्यकता पड़ने पर भभूत से झाड़े, तो नजर-टोना दूर होता है।

२२॰ डाइन या नजर झाड़ने का मन्त्र“उदना देवी, सुदना गेल। सुदना देवी कहाँ गेल ? केकरे गेल ? सवा सौ लाख विधिया गुन, सिखे गेल। से गुन सिख के का कैले ? भूत के पेट पान कतल कर दैले। मारु लाती, फाटे छाती और फाटे डाइन के छाती। डाइन के गुन हमसे खुले। हमसे न खुले, तो हमरे गुरु से खुले। दुहाई ईश्वर-महादेव, गौरा-पार्वती, नैना-जोगिनी, कामरु-कामाख्या की।”विधि- किसी को नजर लग गई हो या किसी डाइन ने कुछ कर दिया हो, उस समय वह किसी को पहचानता नहीं है। उस समय उसकी हालत पागल-जैसी हो जाती है। ऐसे समय उक्त मन्त्र को नौ बार हाथ में ‘जल’ लेकर पढ़े। फिर उस जल से छिंटा मारे तथा रोगी को पिलाए। रोगी ठीक हो जाएगा। यह स्वयं-सिद्ध मन्त्र है, केवल माँ पर विश्वास की आवश्यकता है।

२३॰ नजर झारने के मन्त्र१॰ “हनुमान चलै, अवधेसरिका वृज-वण्डल धूम मचाई। टोना-टमर, डीठि-मूठि सबको खैचि बलाय। दोहाई छत्तीस कोटि देवता की, दोहाई लोना चमारिन की।”२॰ “वजर-बन्द वजर-बन्द टोना-टमार, डीठि-नजर। दोहाई पीर करीम, दोहाई पीर असरफ की, दोहाई पीर अताफ की, दोहाई पीर पनारु की नीयक मैद।”विधि- उक्त मन्त्र से ११ बार झारे, तो बालकों को लगी नजर या टोना का दोष दूर होता है।

२४॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र“आकाश बाँधो, पाताल बाँधो, बाँधो आपन काया। तीन डेग की पृथ्वी बाँधो, गुरु जी की दाया। जितना गुनिया गुन भेजे, उतना गुनिया गुन बांधे। टोना टोनमत जादू। दोहाई कौरु कमच्छा के, नोनाऊ चमाइन की। दोहाई ईश्वर गौरा-पार्वती की, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा।”विधि- नमक अभिमन्त्रित कर खिला दे। पशुओं के लिए विशेष फल-दायक है।

२५॰ नजर उतारने का मंत्र
“ओम नमो आदेश गुरु का। गिरह-बाज नटनी का जाया, चलती बेर कबूतर खाया, पीवे दारु, खाय जो मांस, रोग-दोष को लावे फाँस। कहाँ-कहाँ से लावेगा? गुदगुद में सुद्रावेगा, बोटी-बोटी में से लावेगा, चाम-चाम में से लावेगा, नौ नाड़ी बहत्तर कोठा में से लावेगा, मार-मार बन्दी कर लावेगा। न लावेगा, तो अपनी माता की सेज पर पग रखेगा। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा।”विधिः- छोटे बच्चों और सुन्दर स्त्रियों को नजर लग जाती है। उक्त मन्त्र पढ़कर मोर-पंख से झाड़ दें, तो नजर दोष दूर हो जाता है।

२६॰ नजर-टोना झारने का मन्त्र“कालि देवि, कालि देवि, सेहो देवि, कहाँ गेलि, विजूवन खण्ड गेलि, कि करे गेलि, कोइल काठ काटे गेलि। कोइल काठ काटि कि करति। फलाना का धैल धराएल, कैल कराएल, भेजल भेजायल। डिठ मुठ गुण-वान काटि कटी पानि मस्त करै। दोहाई गौरा पार्वति क, ईश्वर महादेव क, कामरु कमख्या माई इति सीता-राम-लक्ष्मण-नरसिंघनाथ क।”विधिः- किसी को नजर, टोना आदि संकट होने पर उक्त मन्त्र को पढ़कर कुश से झारे।

श्री भैरव मन्त्र“ॐ गुरुजी काला भैरुँ कपिला केश, काना मदरा, भगवाँ भेस। मार-मार काली-पुत्र। बारह कोस की मार, भूताँ हात कलेजी खूँहा गेडिया। जहाँ जाऊँ भैरुँ साथ। बारह कोस की रिद्धि ल्यावो। चौबीस कोस की सिद्धि ल्यावो। सूती होय, तो जगाय ल्यावो। बैठा होय, तो उठाय ल्यावो। अनन्त केसर की भारी ल्यावो। गौरा-पार्वती की विछिया ल्यावो। गेल्याँ की रस्तान मोह, कुवे की पणिहारी मोह, बैठा बाणिया मोह, घर बैठी बणियानी मोह, राजा की रजवाड़ मोह, महिला बैठी रानी मोह। डाकिनी को, शाकिनी को, भूतनी को, पलीतनी को, ओपरी को, पराई को, लाग कूँ, लपट कूँ, धूम कूँ, धक्का कूँ, पलीया कूँ, चौड़ कूँ, चौगट कूँ, काचा कूँ, कलवा कूँ, भूत कूँ, पलीत कूँ, जिन कूँ, राक्षस कूँ, बरियों से बरी कर दे। नजराँ जड़ दे ताला, इत्ता भैरव नहीं करे, तो पिता महादेव की जटा तोड़ तागड़ी करे, माता पार्वती का चीर फाड़ लँगोट करे। चल डाकिनी, शाकिनी, चौडूँ मैला बाकरा, देस्यूँ मद की धार, भरी सभा में द्यूँ आने में कहाँ लगाई बार ? खप्पर में खाय, मसान में लौटे, ऐसे काला भैरुँ की कूण पूजा मेटे। राजा मेटे राज से जाय, प्रजा मेटे दूध-पूत से जाय, जोगी मेटे ध्यान से जाय। शब्द साँचा, ब्रह्म वाचा, चलो मन्त्र ईश्वरो वाचा।”

विधिः- उक्त मन्त्र का अनुष्ठान रविवार से प्रारम्भ करें। एक पत्थर का तीन कोनेवाला टुकड़ा लिकर उसे अपने सामने स्थापित करें। उसके ऊपर तेल और सिन्दूर का लेप करें। पान और नारियल भेंट में चढावें। वहाँ नित्य सरसों के तेल का दीपक जलावें। अच्छा होगा कि दीपक अखण्ड हो। मन्त्र को नित्य २१ बार ४१ दिन तक जपें। जप के बाद नित्य छार, छरीला, कपूर, केशर और लौंग की आहुति दें। भोग में बाकला, बाटी बाकला रखें (विकल्प में उड़द के पकोड़े, बेसन के लड्डू और गुड़-मिले दूध की बलि दें। मन्त्र में वर्णित सब कार्यों में यह मन्त्र काम करता है।

नोट :- नजर उतारते समय, सभी प्रयोगों में ऐसा बोलना आवश्यक है कि “इसको बच्चे की, बूढ़े की, स्त्री की, पुरूष की, पशु-पक्षी की, हिन्दू या मुसलमान की, घर वाले की या बाहर वाले की, जिसकी नजर लगी हो, वह इस बत्ती, नमक, राई, कोयले आदि सामान में आ जाए तथा नजर का सताया बच्चा-बूढ़ा ठीक हो जाए। सामग्री आग या बत्ती जला दूंगी या जला दूंगा।´´

तंत्र शास्त्र

तंत्र शास्त्र
तंत्र शास्त्र भारत की एक प्राचीन विद्या है। तंत्र ग्रंथ भगवान शिव के मुख से आविर्भूत हुए हैं। उनको पवित्र और प्रामाणिक माना गया है। भारतीय साहित्य में 'तंत्र' की एक विशिष्ट स्थिति है, पर कुछ साधक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लग गए, जिसके कारण यह विद्या बदनाम हो गई।जनसाधारण में इसका व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी था कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन हैं कि गुरु के बिना समझे नहीं जा सकते । अतः ज्ञान का अभाव ही शंकाओं का कारण बना।
तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वैसे तो सभी साधनाओं में मंत्र, तंत्र एक-दूसरे से इतने मिले हुए हैं कि उनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता, पर जिन साधनों में तंत्र की प्रधानता होती है, उन्हें हम 'तंत्र साधना' मान लेते हैं। 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की उक्ति के अनुसार हमारे शरीर की रचना भी उसी आधार पर हुई है जिस पर पूर्ण ब्रह्माण्ड की। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अन्तर्मुखी होकर साधनाएँ की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया तीन मार्ग : वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग व मधयम मार्ग कहा गया है।
श्मशान में साधना करने वाले का निडर होना आवश्यक है। जो निडर नहीं हैं, वे दुस्साहस न करें। तांत्रिकों का यह अटूट विश्वास है, जब रात के समय सारा संसार सोता है तब केवल योगी जागते हैं।
तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। यह एक अत्यंत ही रहस्यमय शास्त्र है ।चूँकि इस शास्त्र की वैधता विवादित है अतः हमारे द्वारा दी जा रही सामग्री के आधार पर किसी भी प्रकार के प्रयोग करने से पूर्व किसी योग्य तांत्रिक गुरु की सलाह अवश्य लें। अन्यथा किसी भी प्रकार के लाभ-हानि की जिम्मेदारी आपकी होगी।

शाबर-मन्त्र

सभा मोहन“
गंगा किनार की पीली-पीली माटी। चन्दन के रुप में बिके हाटी-हाटी।। तुझे गंगा की कसम, तुझे कामाक्षा की दोहाई। मान ले सत-गुरु की बात, दिखा दे करामात। खींच जादू का कमान, चला दे मोहन बान। मोहे जन-जन के प्राण, तुझे गंगा की आन। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”विधिः- जिस दिन सभा को मोहित करना हो, उस दिन उषा-काल में नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ‘गंगोट’ (गंगा की मिट्टी) का चन्दन गंगाजल में घिस ले और उसे १०८ बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर श्री कामाक्षा देवी का ध्यान कर उस चन्दन को ललाट (मस्तक) में लगा कर सभा में जाए, तो सभा के सभी लोग जप-कर्त्ता की बातों पर मुग्ध हो जाएँगे।
शत्रु-मोहन
“चन्द्र-शत्रु राहू पर, विष्णु का चले चक्र। भागे भयभीत शत्रु, देखे जब चन्द्र वक्र। दोहाई कामाक्षा देवी की, फूँक-फूँक मोहन-मन्त्र। मोह-मोह-शत्रु मोह, सत्य तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र।। तुझे शंकर की आन, सत-गुरु का कहना मान। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”विधिः- चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण के समय किसी बारहों मास बहने वाली नदी के किनारे, कमर तक जल में पूर्व की ओर मुख करके खड़ा हो जाए। जब तक ग्रहण लगा रहे, श्री कामाक्षा देवी का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का पाठ करता रहे। ग्रहण मोक्ष होने पर सात डुबकियाँ लगाकर स्नान करे। आठवीं डुबकी लगाकर नदी के जल के भीतर की मिट्टी बाहर निकाले। उस मिट्टी को अपने पास सुरक्षित रखे। जब किसी शत्रु को सम्मोहित करना हो, तब स्नानादि करके उक्त मन्त्र को १०८ बार पढ़कर उसी मिट्टी का चन्दन ललाट पर लगाए और शत्रु के पास जाए। शत्रु इस प्रकार सम्मोहित हो जायेगा कि शत्रुता छोड़कर उसी दिन से उसका सच्चा मित्र बन जाएगा।
पीलिया का मंत्र“
ओम नमो बैताल। पीलिया को मिटावे, काटे झारे। रहै न नेंक। रहै कहूं तो डारुं छेद-छेद काटे। आन गुरु गोरख-नाथ। हन हन, हन हन, पच पच, फट् स्वाहा।”विधिः- उक्त मन्त्र को ‘सूर्य-ग्रहण’ के समय १०८ बार जप कर सिद्ध करें। फिर शुक्र या शनिवार को काँसे की कटोरी में एक छटाँक तिल का तेल भरकर, उस कटोरी को रोगी के सिर पर रखें और कुएँ की ‘दूब’ से तेल को मन्त्र पढ़ते हुए तब तक चलाते रहें, जब तक तेल पीला न पड़ जाए। ऐसा २ या ३ बार करने से पीलिया रोग सदा के लिए चला जाता है।
दाद का मन्त्र“
ओम् गुरुभ्यो नमः। देव-देव। पूरा दिशा भेरुनाथ-दल। क्षमा भरो, विशाहरो वैर, बिन आज्ञा। राजा बासुकी की आन, हाथ वेग चलाव।”विधिः- किसी पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्ध कर लें। फिर २१ बार पानी को अभिमन्त्रित कर रोगी को पिलावें, तो दाद रोग जाता है।
आँख की फूली काटने का मन्त्र“उत्तर काल, काल। सुन जोगी का बाप। इस्माइल जोगी की दो बेटी-एक माथे चूहा, एक काते फूला। दूहाई लोना चमारी की। एक शब्द साँचा, पिण्ड काँचा, फुरो मन्त्र-ईश्वरो वाचा”विधिः- पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्धकर लें। फिर मन्त्र को २१ बार पढ़ते हुए लोहे की कील को धरती में गाड़ें, तो ‘फूली’ कटने लगती है।

पितृ-आकर्षण मन्त्र

पितृ-आकर्षण मन्त्र
(कभी-कभी पितृ-पीड़ा से मनुष्य का जीवन दुःख-मय हो जाता है। निर्धारित कार्यों में बाधा, विफलता की प्राप्ति होती है। आकस्मिक दुर्घटनाएँ घटती है। पूरा कुटुम्ब दुःखी रहता है। ऐसी दशा में निम्नलिखित ‘प्रयोग’ करे। यह ‘प्रयोग’ निर्दोष है। पितृ-पीड़ा हो या न हो, सभी प्रकार की बाधाएँ नष्ट हो जाती है और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। यदि यह ज्ञात हो कि किस पितृ की पीड़ा है, तो उस पितृ का मन-ही-मन आवाहन-पूजन कर निम्न ‘प्रयोग’ करे। पितृ-पीड़ा दूर हो जाएगी।)
“ॐ नमो कामद काली कामाक्षा देवी। तेरे सुमरे, बेड़ा पार। पढ़ि-पढ़ि मारूँ, गिन-गिन फूल। जाहि बुलाई, सोई आये। हाँक मार हनुमान बीर, पकड़ ला जल्दी। दुहाई तोय, सीता सती, अञ्जनी माता की, मेरा मन्त्र साँचा, पिण्ड काँचा। फुरो मन्त्र, ईश्वरो वाचा।”
विधिः- उक्त मन्त्र का राम-दूत परम-वीर श्री हनुमान जी के मन्दिर में एकान्त में, प्रतिदिन १ हजार जप ४१ दिन तक करें। यन-नियम का पालन करें। पहले दिन पूजन करें। ४१ दिन में मन्त्र चैतन्य हो जाएगा। ४२वें दिन, श्री हनुमानजी के उसी मन्दिर में २१ गुलाब के फूल लेकर जाए। हनुमानजी के सामने बैठकर उक्त मन्त्र से २१ फूलों को अभिमन्त्रित करें और मन-ही-मन संकल्प करें-”ज्ञात-अज्ञात पितृ-देवता मुझे दर्शन दें या आशीष दें।” इसके बाद सभी फूल, सभी दिशाओं-विदिशाओं में फेंक दें। फिर थोड़ी देर मन्दिर में रुके रहें, ध्यान से बैठे रहें। फिर गृह चले जायें। एक सप्ताह के अन्दर उचित निर्देश मिल जायेगा।

मोहन

दृष्टि द्वारा मोहन करने का मन्त्र“
ॐ नमो भगवति, पुर-पुर वेशनि, सर्व-जगत-भयंकरि ह्रीं ह्रैं, ॐ रां रां रां क्लीं वालौ सः चव काम-बाण, सर्व-श्री समस्त नर-नारीणां मम वश्यं आनय आनय स्वाहा।”विधिः- किसी भी सिद्ध योग में उक्त मन्त्र का १०००० जप करे। बाद में साधक अपने मुहँ पर हाथ फेरते हुए उक्त मन्त्र को १५ बार जपे। इससे साधक को सभी लोग मान-सम्मान से देखेंगे।
२ तेल अथवा इत्र से मोहनक॰
“ॐ मोहना रानी-मोहना रानी चली सैर को, सिर पर धर तेल की दोहनी। जल मोहूँ थल मोहूँ, मोहूँ सब संसार। मोहना रानी पलँग चढ़ बैठी, मोह रहा दरबार। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। दुहाई गौरा-पार्वती की, दुहाई बजरंग बली की।
ख॰ “ॐ नमो मोहना रानी पलँग चढ़ बैठी, मोह रहा दरबार। मेरी भक्ति, गुरु की शक्ति। दुहाई लोना चमारी की, दुहाई गौरा-पार्वती की। दुहाई बजरंग बली की।”विधिः- ‘दीपावली’ की रात में स्नानादिक कर पहले से स्वच्छ कमरे में ‘दीपक’ जलाए। सुगन्धबाला तेल या इत्र तैयार रखे। लोबान की धूनी दे। दीपक के पास पुष्प, मिठाई, इत्र इत्यादि रखकर दोनों में से किसी भी एक मन्त्र का २२ माला ‘जप’ करे। फिर लोबान की ७ आहुतियाँ मन्त्रोचार-सहित दे। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध होगा तथा तेल या इत्र प्रभावशाली बन जाएगा। बाद में जब आवश्यकता हो, तब तेल या इत्र को ७ बार उक्त मन्त्र से अभीमन्त्रित कर स्वयं लगाए। ऐसा कर साधक जहाँ भी जाता है, वहाँ लोग उससे मोहित होते हैं। साधक को सूझ-बूझ से व्यवहार करना चाहिए। मन चाहे कार्य अवश्य पूरे

लक्ष्म्यष्टक स्तोत्रम्

नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शङ्ख चक्र गदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ते॥१
नमस्ते गरुड़ारूढ़े कोलासुर भयङ्करि।
सर्वपाप हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥२॥
सर्वज्ञे सर्व वरदे सर्व दुष्ट भयञ्करि।
सर्व दुःख हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥३॥
सिद्धि बुद्धि प्रदे देवि भुक्ति मुक्ति प्रदायिनि।
मन्त्रमूर्ते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥४॥
आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्ति महेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥५॥
स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ति महोदरे।
महापाप हरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥६॥
पद्मासन स्थिते देवि परब्रह्म स्वरूपिणि।
परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥७॥
श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कार भूषिते।
जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि नमोऽस्तुते॥८॥
फलश्रुतिमहालक्ष्म्यष्टकस्तोत्रं यः पठेद् भक्तिमान्नरः।
सर्व सिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा॥९॥
एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम्।
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्य समन्वितः॥१०॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मी भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा॥११॥

विभिन्न देवी देवताओं के लिये गायत्री मन्त्र

ॐ भूर्भू:स्व: तत् सवितुर वरेणियम।
भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात।।
प्राचीन भारतीय तन्त्र की कुछ पुस्तकों में गायत्री की महत्ता का उल्लेख है, लिखा है कि १०८ या १० बार के गायत्री जाप से महा पातकी व्यक्ति भी मुक्ति पा जाता है।यहाँ जो जप संख्या १०८ या १० बार गायत्री जप निर्दिष्ट किया गया है, वह शक्ताशक्त के लिये समझना चाहिये।
(१) विष्णु गायत्री - त्रैलोक्य-मोहनाय विद्महे काम-देवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
(२)नारायण गायत्री - नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
(३)नृसिंह गायत्री - वज्र नखाय विद्महे तीक्ष्ण दंष्ट्राय धीमहि तन्नो नरसिंहः प्रचोदयात्।
(४)गोपाल गायत्री -कृष्णाय विद्महे दामोदराय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।
(५)राम गायत्री - द्शरथाय विद्महे सीता वल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्।
(६)शिव गायत्री - तत्पुरुषाय विद्महे महा-देवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।
(७)गणेश गायत्री - दक्षिणामूर्तये विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।
(८)सूर्य गायत्री - आदित्याय विद्महे मार्तण्डाय धीमहि तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।
(१०)दुर्गा गायत्री - महा देव्यै विद्महे दुर्गायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।
(११)लक्ष्मी गायत्री - महा लक्ष्म्यै विद्महे महा - श्रियै धीमहि तन्नः श्रीः प्रचोदयात्।
(१२)सरस्वती गायत्री - वाग्देव्यै विद्महे काम- राजाय धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।
(१३)अन्नपूर्णा गायत्री - भगवत्यै विद्महे माहेश्वर्यै धीमहि तन्नोऽन्नपूर्णे प्रचोदयात्।
(१४)कालिका गायत्री - कालिकायै विद्महे श्मशान-वासिन्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्।
(१५)काम गायत्री - काम देवाय विद्महे पुष्प-बाणाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्।

ये विभिन्न गायत्री मन्त्र विभिन्न देवी देवताओं के हैं, जिनका जप यथाशक्ति और पूरी निष्ठा से किया जाये तो लाभ होना निश्चित है, संदेह का प्रश्न ही नहीं है।ये सर्वथा सुरक्षित मन्त्र हैं जिनका जप केवल स्नानादि से निवृत्त हो कर किया जा सकता है, और साधक चाहे तो अनुष्ठान भी कर सकता है।